तीन तलाक खत्म. बधाई.- जयति जैन

तीन तलाक खत्म , 22 अगस्त 2017 को मुस्लिम महिलायें आजाद ! बधाई हो ! न्यायालय ने एक ही झटके में कुप्रथा खत्म कर दी।
देश के सबसे जटिल सामाजिक मुद्दों में से एक तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की संविधान बेंच ने मंगलवार को अपना फैसला सुना दिया। पांच में से तीन जजों जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यूयू ललित ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया। तीनों ने जस्टिस नजीर और सीजेआई खेहर की राय का विरोध किया। तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार दिया। जजों ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है। यह प्रथा बिना कोई मौका दिए शादी को खत्म कर देती है। कोर्ट ने मुस्लिम देशों में ट्रिपल तलाक पर लगे बैन का जिक्र किया और पूछा कि भारत इससे आजाद क्यों नहीं हो सकता?


बात शुरुआत से शुरू करते हैं
मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत पर आधारित है। मोटे तौर पर, शरीयत को कुरान के प्रावधानों के साथ ही पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं और प्रथाओं के रूप में समझा जा सकता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 भारत के सभी नागरिकों को ‘कानून का समान संरक्षण’ देता है, लेकिन जब बात व्यक्तिगत मुद्दों ( शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की हिरासत) की आती है तो मुसलमानों के ये मुद्दे मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आ जाते हैं। 
मुस्लिम पर्सनल लॉ की शुरुआत साल 1937 में हुई थी। 
भारत में कैसे लागू हुआ मुस्लिम पर्सनल लॉ?
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट साल 1937 में पास हुआ था। इसके पीछे मकसद भारतीय मुस्लिमों के लिए एक इस्लामिक कानून कोड तैयार करना था। उस वक्त भारत पर शासन कर रहे ब्रिटिशों की कोशिश थी कि वे भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक नियमों के मुताबिक ही शासन करें। तब(1937) से मुस्लिमों के शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक विवादों के फैसले इस एक्ट के तहत ही होते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दखल नहीं कर सकती।

क्या भारत में पर्सलन लॉ मुसलमानों के लिए ही है ?
भारत में अन्य धार्मिक समूहों के लिए भी ऐसे कानून बनाए गए हैं। देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड है। उदाहरण के तौर पर 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, इसके तहत हिंदू, बुद्ध, जैन और सिखों में विरासत में मिली संपत्ति का बंटवारा होता है। इसके अलावा 1936 का पारसी विवाह-तलाक एक्ट और 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम इसके उदाहरण हैं।

क्या भारत में शरीयत एप्लिकेशन एक्ट में बदलाव नहीं हो सकता ?
शरीयत एक्ट की प्रासंगिकता पर पहले भी कई बार बहस हो चुकी है। पहले ऐसे कई मामले आए हैं, जब महिलाओं के सुरक्षा से जुड़े अधिकारों का धार्मिक अधिकारों से टकराव होता रहा है। इसमें शाह बानो केस प्रमुख है।
1985 में 62 वर्षीय शाह बानो ने एक याचिका दाखिल करके अपने पूर्व पति से गुजारे भत्ते की मांग की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गुजारे भत्ते की मांग को सही बताया था, लेकिन इस फैसले का इस्लामिक समुदाय ने विरोध किया था। मुस्लिम समुदाय ने
फैसले को कुरान के खिलाफ बताया था। इस मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। उस वक्त वक्त सत्ता में कांग्रेस सरकार थी। सरकार ने उस वक्त Muslim Women (Protection of Rights on Divorce Act) पास किया था। इस कानून के तहत यह जरूरी किया गया था कि हर एक पति अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देगा। लेकिन इसमें प्रावधान था कि यह भत्ता केवल इद्दत की अवधि के दौरान ही देना होगा, इद्दत तलाक के 90 दिनों बाद तक ही होती है। पर्सनल लॉ के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों की लंबी सूची है। साल 1930 से लेकर अब तक महिलाओं के आंदोलन का अहम एजेंडा सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के साथ भेदभाव ही रहा है।
इसी साल मार्च में केरल हाईकोर्ट के जज जस्टिस बी केमल पाशा ने विरोध जाहिर किया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता। हालांकि, पर्सनल लॉ में बदलाव के खिलाफ प्रदर्शन इसमें संशोधन को मुश्किल बना देते
हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत मामलों में सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। इनका निपटारा कुरान और हदीस की व्याख्या के मुताबिक ही होगा।

तीन तलाक क्या था ?
कुरान ने इसे कुछ यूं बयान किया है – “और अगर तुम्हें शौहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है” (सूरेह निसा-35).
इसके बावजूद भी अगर शौहर और बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है, तो शौहर बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इंतजार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम बिस्तर हुए कम से कम दो जुम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक दे, यानी शौहर हर बीवी से सिर्फ इतना कहे कि
”मैं तुम्हे तलाक देता हूं”।
तलाक हर हाल में एक ही दी जाएगी दो या तीन या सौ नहीं, जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए दो तीन या हज़ार तलाक बोल देते हैं, यह इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है। अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है, वो इस्लामी शरियत और कुरान का मज़ाक उड़ा रहा होता है।
इस एक तलाक के बाद बीवी 3 महीने यानी 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने तक) शौहर ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी शौहर ही के जिम्मे रहेगा, लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, कुरान ने सूरेह तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरान ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शौहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं।
अल्लाह कुरान में फरमाता है – “और जब तुम औरतों को तलाक दो और वो अपनी इद्दत के खात्मे पर पहुंच जाए तो या तो उन्हें भले तरीक़े से रोक लो या भले तरीक़े से रुखसत कर दो, और उन्हें नुक्सान पहुंचाने के इरादे से ना रोको के उन पर ज़ुल्म करो, और याद रखो के जो कोई ऐसा करेगा वो दर हकीकत अपने ही ऊपर ज़ुल्म ढाएगा, और अल्लाह की आयातों को मज़ाक ना बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस कानून और हिकमत को याद रखो जो अल्लाह ने उतारी है जिसकी वो तुम्हे नसीहत करता है, और अल्लाह से डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाकिफ है”।
(सूरेह बक्राह-231)
लेकिन अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया और इद्दत का वक़्त ख़त्म हो गया तो अब उनका रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, अब उन्हें जुदा होना है।
इस मौके पर कुरान ने कम से कम दो जगह (सूरेह बक्राह आयत 229 और सूरेह निसा आयत 20 में) इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि मर्द ने जो कुछ बीवी को पहले गहने, कीमती सामान, रुपये या कोई जाएदाद तोहफे के तौर पर दे रखी थी, उसका वापस लेना शौहर के लिए बिल्कुल जायज़ नहीं है, वो सब माल जो बीवी को तलाक से पहले दिया था वो अब भी बीवी का ही रहेगा और वो उस माल को अपने साथ लेकर ही घर से जाएगी, शौहर के लिए वो माल वापस मांगना या लेना या बीवी पर माल वापस करने के लिए
किसी तरह का दबाव बनाना बिल्कुल जायज़ नहीं है।


जब कुरान तीन तलाक की इजाजत नहीं देता तो पर्सनल लॉ बोर्ड कौन होता है ?
इसकी पैरवी करने वाली : ज़किया सोमन... बीएमएमए की संस्थापक
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भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) पिछले दस साल से भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत है. बीएमएमए की संस्थापक ज़किया सोमन और नूरजहां सफिया की मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए यह लड़ाई किसी और से नहीं बल्कि खुद को इस्लाम का रहनुमा बताने वाले उन तमाम लोगों से है जो धर्म की आड़ में दकियानूसी मानसिकता को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते जा रहे हैं. पिछले साल तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह जैसी कुरीतियों पर बीएमएमए ने सात राज्यों की मुस्लिम महिलाओं की राय जानी और ‘नो मोर तलाक तलाक तलाक’ नाम से रिपोर्ट एक प्रकाशित की. इस सर्वे को आधार बनाकर वे मुस्लिम मैरिज एेक्ट के कानूनों को संशोधित करने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र भी लिख चुकी हैं. पिछले दिनों तीन तलाक को बैन करने की उनकी इस मुहिम में भाग लेते हुए 50,000 लोगों ने हस्ताक्षर करके उनका समर्थन किया था 

, जिसके बाद उन्होंने महिला आयोग से इस आंदोलन का समर्थन करने की अपील की थी .


सितम्बर 2016 में आयी रिपोर्ट में बताया गया था कि-
तीन बार तलाक के मुद्दे पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड(एआईएमपीएलबी) ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि निजी कानूनों को चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसा करना संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।
एआईएमपीएलबी ने शुक्रवार को कोर्ट में यह जवाब दिया। बोर्ड ने कहा कि निजी कानून प्रत्येक धर्म की परंपराओं और धर्मग्रंथों पर आधारित होते हैं इन्हें समाज के सुधार के नाम पर दोबारा नहीं लिखा जा सकता। साथ ही अदालतें इनमें दखल भी नहीं दे सकतीं।
सुप्रीम कोर्ट में पिछले साल मुस्लिम महिलाअधिकारों का आधार बनाकर तीन बार तलाक कहने के मुद्दे पर सुनवाई शुरू हुई थी। कई महिलाओं का कहना था कि पुरुष तलाक के जरिए उन्हें प्रताडि़त करते हैं।
शुक्रवार(दो सितम्बर) को मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने कहा कि तीन बार तलाक कहने की वैधता पर
सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं ले सकता।
बोर्ड ने कहा, ”पति को तीन बार तलाक कहने की इस्लाम में अनुमति है, क्योंकि वे निर्णय लेने की बेहतर स्थिति में होते हैं और जल्दबाजी में ऐसा नहीं करते। एक धर्म में अधिकारों की वैधता पर कोर्ट सवाल नहीं उठा सकता। कुरान के अनुसार तलाक से बचना चाहिए लेकिन जरुरत होने पर इसकी अनुमति है।”
बोर्ड की ओर से दिए गए एफिडेविट में कहा गया था  कि यह एक मिथक है कि तलाक के मामले में मुस्लिम पुरुषों को एकतरफा ताकत मिली होती है। साथ ही इस्लाम जब बहुविवाह प्रथा की अनुमति देता है तो यह उसको प्रोत्साहित नहीं करता। इस मामले में चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली बैंच ने सुनवाई की। इस मामले में कई महिलाओं ने याचिका दायर की थी । इनमें से एक हैं इशरत जहां। इशरत को फोन पर तलाक दे दिया गया था।



-----------जयति जैन (नूतन) 'शानू'....... रानीपुर झांसी
युवा लेखिका, सामाज़िक चिन्तक,

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