आखिर क्यों हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी ?

हिंदी दिवस विशेष-


लेख- आखिर क्यों हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी ?


राष्ट्रभाषा के लुटेरे बाहरी नहीं बल्कि हम भारतवासी ही हैं खासतौर पर कुछ अहिन्दीभाषी, जो कभी नहीं चाहते थे कि हिंदी राष्ट्रभाषा बने। हिंदी को लेकर दक्षिण भारत में आंरभ से ही विरोध रहा। वहां के राजनेताओं का यह दृढ़ मत था कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है। उनका दावा था कि हिंदी के राजभाषा के तौर पर स्थापित किये जाने पर शासन-प्रशासन में हिंदीभाषियों का वर्चस्व बढ़ जायेगा और तब अहिंदीभाषी घाटे की स्थिति में आ जायेंगे जबकि वह खुद संपर्कभाषा के तौर पर अलग प्रान्त से आये लोगों से समन्वय स्थापित करते हैं।


आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे समाज के अधिकतर लोग महात्मा गांधी से नफरत करते हैं वजह देश का बंटवारा और भगतसिंह और उनके साथियों की मौत के जिम्मेदार होने के कारण, लेकिन इस बात से उनके दिल को तसल्ली मिलेगी कि महात्मा गांधी हिन्दीप्रेमी थे। जितना उन्होंने दिया देश को, उतना उनकी दयादृष्टि में रहे लोगों ने लूटा है। आज हिंदी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है, इसके उत्थान के लिए हमें कुछ बातें जानना जरूरी हैं कि भारतीय इतिहास में वो कौन लोग थे जिन्होंने हिंदी को लूटा है। इतिहास पढ़ा जिसमें गांधी जी को हिंदीप्रेमी बताया गया। क्यूं ना बताते जब वो हिंदीभाषी थे, इतिहास के कुछ पन्ने एक दर्दनाक कहानी बयां करते हैं कि आजादी के बाद क्या हुआ इस देश में कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी ?


15 अगस्त 1947 को हम आजादी मिल गयी, जबकि आजाद होने के कुछ दिन पहले तक सबके प्रिय बापू कहा करते थे कि जिस दिन आजादी मिल गई, 6 महीने के अन्दर पूरे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी हो जाएगी और सरकार के काम काज की भाषा हिन्दी हो जाएगी, संसद और विधनसभाओं की भाषा हिन्दी हो जाएगी और इतनी कड़ी बात कही थी कि जो संसद में बोलने वाला सांसद हिन्दी में बात नहीं करेगा, जो विधान सभाओं में बोलने वाला विधायक हिन्दी में बात नहीं करेगा, तो मैं सबसे पहला आदमी हूंगा जो उनके खिलाफ आन्दोलन करूंगा और अंग्रेजी बोलने वालों को जेल में भिजवाऊंगा। वह कहा करते थे कि आजादी के बाद भारत का कोई सांसद या विधायक अंग्रेजी में बात करे इससे बड़ा अपमान भारत का कोई दूसरा नहीं हो सकता और मैं बर्दास्त नहीं करूंगा कि भारत का कोई सांसद या विधयक अंग्रेजी में बात करे। एक बार तो इससे भी कड़ी बात कही कि मुझे सत्ता नहीं चाहिए, सिंहासन नहीं चाहिए लेकिन एक चीज तो मुझे चाहिए और उसके लिए मैं मर जाऊंगा, अपनी जान दे दूंगा, वो है मुझे राष्ट्रभाषा का सम्मान, राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा चाहिए। इसके लिए तो मैं अपना बलिदान करने के लिए तैयार हूँ। उन्होंने कहा कि भारत की आजादी के बाद अगर सरकार ने अंग्रेजी को नहीं हटाया तो भारत सरकार की जगह जेल होगी, मैं भारत सरकार के खिलापफ सत्याग्रह करूंगा। इतने ज्यादा आग्रही थे वो मातृभाषा के प्रति।


गांधी जी ने मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति के आयोजित सम्मेलन में कहा था, ‘जैसे अंग्रेज मादरी जबान यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें. इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये। बापू ने अपने उद्बोधन में हिन्दी की गंगा-जमुनी संस्कृति पर भी प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था, ‘हिन्दी वह भाषा है, जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है । यह हिन्दी संस्कृतमयी नहीं है, न ही वह एकदम फारसी अल्फाज से लदी हुई है।


अब सोचिये कि महात्मा गांधी हिन्दीभाषी भी थे और हिंदी के प्रति समर्पित थे तब भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिला सके। जब सत्ता उनके परम देशभक्तों के हाथ आयी तब उन्होंने बिल्कुल उलटे शब्दों में बोलना शुरू कर दिया कि भारत में अंग्रेजी के बिना कोई काम नहीं चल सकता। भारत में विज्ञान और तकनीकी को आगे बढ़ाना है तो अंग्रेजी के बिना ये संभव नहीं हो सकता, भारत का विकास करना है तो अंग्रेजी के बिना ये संभव नहीं हो सकता, भारत को विश्व के मानचित्रा पर स्थापित कराना है तो अंग्रेजी के बिना ये नहीं हो सकता, यूरोप ओर अमेरिका जैसा बनाना है तो ये अंग्रेजी के बिना नहीं हो सकता।" यानी अंगेज़ चले गए और उनकी अंग्रेज़ी, उनके चमचों ने लोगों पर थोप दी, लोग यानी समाज और समाज यानी देश।




महात्मा गांधी हिन्दीप्रेमी व राष्ट्रप्रेमी दोनों थे लेकिन आज़ादी के बाद उन्होनें हिंदी के लिए क्या किया, इसका उल्लेख करना मुश्किल हैलेकिन उनके बाद अगर किसी का नाम आया तो वह हैं राम मनोहर लोहिया जी का, जिन्होनें अंग्रेजी भाषा का पुरजोर विरोध किया। राम मनोहर लोहिया एक स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर समाजवादी और सम्मानित राजनीतिज्ञ थे। लोहिया जी ने हमेशा सत्य का अनुकरण किया और आजादी की लड़ाई में अद्भुत काम किया। उन्होनें १९६० में * अंग्रेजी हटाओ आंदोलन * शुरू किया। आजादी के बाद, लोहिया जी हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में बनाने के लिए सुर्खियों में आए। उनका मानना था कि अंग्रेजी का उपयोग मूल सोच, अवरुद्ध भावनाओं के पूर्वज और शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच अंतर के लिए एक बाधा है। आओ, हम अपनी मूल महिमा को हिंदी में पुनर्स्थापित करने के लिए एक हो जाए।” लोहिया जी जानते थे कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में अंग्रेजी का प्रयोग आम जनता की प्रजातंत्र में शत प्रतिशत भागीदारी के रास्ते का रोड़ा है। उन्होंने इसे सामंती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग के खतरों से बारंबार आगाह किया और बताया कि यह मजदूरों, किसानों और शारीरिक श्रम से जुड़े आम लोगों की भाषा नहीं है। उन्होंने लिखा:


“ यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाये जाएं, जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें, तो यह केवल एक प्रकार का जादू-टोना होगा। “


दुख की बात है कि लोहिया जी के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन (1957) को हिंदी का वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश के तौर पर देखा गया, जबकि लोहिया ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि अंग्रेजी हटाओ का अर्थ हिंदी लाओ कदापि नहीं है। उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं की उन्नति और उनके प्रयोग की खुल कर वकालत की। उनके अनुसार अंग्रेजी हटाओ का अर्थ 'मातृभाषा लाओ' था। भारतीय राजनीति का बेबाक और बिंदास चेहरा रहे राममनोहर लोहिया जी ने ५० के दशक में ही भांप लिया था। उन्होंने लोकसभा में बल देकर अपनी बात रखते हुए कहा था:


“ अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए। मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोक राज्य असंभव है। कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती हैं यह प्रश्न नहीं है। हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिये और वह भी जल्दी। अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये। “


१९५० में जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब उसमें भी यह व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसके बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा। इससे पहले कि संवैधानिक समयसीमा पूरी होती, डॉ राममनोहर लोहिया ने 1957 में अंग्रेजी हटाओ मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया। वे पूरे भारत में इस आंदोलन का प्रचार करने लगे।


1961 में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के दौरान लोहिया जी की सभा पर मद्रास में पत्थर बरसाये गए। 1962-63 में जनसंघ भी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गया। लेकिन इस दौरान दक्षिण भारत के राज्यों (विशेषकर तमिलनाडु में) आंदोलन का विरोध होने लगा। तमिलनाडु में अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके पार्टी ने हिंदी विरोधी आंदोलन को और तेज कर दिया। इसके बाद कुछ शहरों में आंदोलन का हिंसक रूप भी देखने को मिला। कई जगह दुकानों के ऊपर लिखे अंग्रेजी के साइनबोर्ड तोड़े जाने लगे। उधर 1965 की समयसीमा नजदीक होने की वजह से तमिलनाडु में भी हिंदी विरोधी आंदोलन काफी आक्रामक हो गया। यहां दर्जनों छात्रों ने आत्मदाह कर ली। इस आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित करवाया। इसमें प्रावधान किया गया कि 1965 के बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल राजकाज में किया जा सकता है।


तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी ने इस आन्दोलन के विरुद्ध 'हिन्दी हटओ' का आन्दोलन चलाया जो एक सीमा तक अलगाववादी आन्दोलन का रूप ले लिया। नेहरू ने सन १९६३ में संविधान संशोधन करके हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी अनिश्चित काल तक भारत की सह-राजभाषा का दर्जा दे दिया। सन १९६५ में अंग्रेजी पूरी तरह हटने वाली थी वह 'स्थायी' बना दी गयी। दुर्भाग्य से सन १९६७ में लोहिया जी का असमय देहान्त हो गया जिससे इस आन्दोलन को भारी धक्का लगा। यह यह आंदोलन सफल होता तो आज भाषाई त्रासदी का यह दौर न देखना पडता।


लोहिया जी के आदर्शों और विचारों पर चलकर फिर से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहीम तेज़ हो गयी है। अहिन्दीभाषियों को यह समझना चाहिए कि वह जब संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी का उपयोग करते हैं तब उन्हें हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने पर कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।


वर्तमान स्थिति की बात करूं तो महाराष्ट्र, जहाँ मराठियों की भरमार है लेकिन नौकरी के लिए अलग अलग प्रांतों से आये लोगों की संख्या बहुत है। जब बाज़ार सामग्री लेने जाते हैं तब बातचीत के लिए हिंदी का ही इस्तेमाल होता है। उत्तर और मध्य भारत से आये लोगों की मुख्य भाषा हिंदी और अंग्रेजी है जबकि मराठियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली मुख्य भाषाएँ हैं मराठी और हिंदी। हिंदी दोनों के बीच एक ऐसी भाषा है जो सामंजस्य स्थापित करती है इसलिए अतीत में देशभक्त के रूप में जो लुटेरे थे उन्हें भूलकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाइये क्युकिं यह बहुत ही शर्म की बात है कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हमारी जो मातृभाषा है वह मृत्यु पर्यन्त भी रहेगी।


--- जयति जैन "नूतन" ---


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