जानिये जैन धर्म के बारे में

जैन धर्म ग्रंथ पर आधारित धर्म नहीं है। भगवान महावीर ने सिर्फ़ प्रवचन ही दिए थे। उन्होंने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की थी, लेकिन बाद में उनके गणधरों ने उनके अमृत वचन और प्रवचनों का संग्रह कर लिया। यह संग्रह मूलत: प्राकृत भाषा में है, विशेष रूप से मागधी में।
जैन धर्म के अनुसार सभी तीर्थंकरों ने साधारण मनुष्य के रूप में जन्म लिया और अपनी इंद्रिय और आत्मा पर विजय प्राप्त कर वे तीर्थंकर बने। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं। तीर्थंकर अर्हंतों में से ही होते हैं। जैनाचार्यों को जिन, जिनदेव या जिनेन्द्र आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है। 'जिन' शब्द से ही 'जैन' शब्द की उत्पत्ति हुई है।

'जिन' किसी व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं है, वरन जो लोग आत्म-विकारों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, जो अपनी इंद्रियों को वशीभूत कर लेते हैं, ऐसे आत्मजयी व्यक्ति 'जिन' कहलाते हैं। इन्हीं को पूज्य अर्थ में अर्हत, अरिहंत अथवा अरहन्त भी कहा जाता है। जो देवों और मनुष्य द्वारा पूज्य होते हैं, जो स्वयं तरते हैं तथा
औरों को तरने का मार्ग बताते हैं, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थंकर जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होते हैं।
जैन धर्म के इन्हीं तीर्थंकरों ने क्रमिक रूप से जैन धर्म की आधारशिला रखी। वैसे तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक लोग जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं और चौबीसवें अंतिम तीर्थंकर महावीर को जैन धर्म का संशोधक माना जाता है। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख अजैन साहित्य और खासकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं।
अर्हंतं, जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था। श्रीमद् भागवत में श्री ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार और परमहंस दिगंबर धर्म का प्रतिपादक कहा है। विष्णु पुराण में
श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है।
दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम
महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है। योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं। इसी तरह रुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है।
नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। इस तरह के कुछ उद्धरण इसी पुस्तक के अन्य पाठों में दिए गए हैं। प्रस्तुत पाठ में कुछ विद्वानों, इतिहासज्ञों, पुरातत्वज्ञों की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है।
ऋग्वेद,यजुर्वेद आदि हिन्दू धर्म के चारों प्रचीनत्तम वेदों मे भगवान ऋषभ देव जी (वर्तमान केअन्य धर्मों में भी पूजनीय ),भगवान अजित नाथ ,भगवान नेमिनाथ(कृष्ण जी के चचेरे भाई),जी का
उल्लेख मिलता है,जो की प्रमाणित करता है
की जैन धर्म हिन्दूधर्म से पहिले से ही अस्तित्व में था!लोक के भरत और ऐरावत के आर्य खंडो में अवसर्पिणी काल के पंचम काल के अंत से ३ वर्ष साढ़े आठ माह पूर्व जैन धर्म की व्युच्छति(लोप) अवश्य होती है जिसका उत्सर्पणी काल के तीसरे काल में तीर्थंकरों के जन्मो के साथ उनके तीर्थों
के माध्यम से पुन: प्रवर्तन होता है !जैन धर्म बौद्ध धर्म से काफी पुराना है। इसका उदय वैदिक काल में ही हो गया था। जैनों में भगवान को तीर्थंकर कहा गया है। कुल 24 तीर्थंकर हुए। ऋषभदेव पहले तीर्थंकर थे। इनका उल्लेख ऋग्वेद में भी है।  23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे। पार्श्व के अनुयायियों को निर्ग्रन्थ कहा जाता था।
24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को निगंठ नाट पुत्त कहा गया है। पार्श्वनाथ ने वैदिक कर्मकांड और देववाद का विरोध किया। पार्श्वनाथ ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह (धन संचय न करना) का उपदेश दिया। महावीर स्वामी ने इसमें ब्रह्मचर्य नामक पांचवे व्रत को जोड़ा। महावीर स्वामी जैनों के 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर थे।
जैन परम्परा में 63 शलाका महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत , संस्कृत , अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है।
मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था।  लगभग इसी समय मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ कपड़े पहनाकर रखी जाएँ या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया।
ईसा की पहली सदी में आकर जैन मतावलंबी मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल 'श्वेताम्बर ' और दूसरा दल ' दिगम्बर' कहलाया। 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर' इन दोनों संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से अधिक चरित्र को लेकर है। दिगम्बर आचरण पालन में अधिक कठोर माने जाते हैं, जबकि श्वेताम्बर कुछ उदार हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, जबकि दिगम्बर मुनि निर्वस्त्र रहकर साधना करते हैं। यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है। दिगम्बर संप्रदाय यह मानता है कि मूल आगम ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं, ' कैवल्य ज्ञान ' प्राप्त होने पर सिद्ध को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती और स्त्री शरीर से 'कैवल्य ज्ञान' संभव नहीं है; किंतु श्वेताम्बर संप्रदाय ऐसा नहीं मानते हैं।

शाखाएँ
जैन धर्म की दिगम्बर शाखा में तीन शाखाएँ हैं-
1. मंदिरमार्गी
2. मूर्तिपूजक
3. तेरापंथी
श्वेताम्बर में शाखाओं की संख्या दो है-
1. मंदिरमार्गी
2. स्थानकवासी
दिगम्बर संप्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते।
'दिग्' अर्थात दिशा। दिशा ही अंबर है, जिसका वह 'दिगम्बर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा गया है। जबकि श्वेताम्बर संप्रदाय के मुनि सफ़ेद वस्त्र धारण करते हैं। लगभत तीन सौ वर्षों पहले श्वेताम्बरों में ही एक अन्य शाखा और निकली
'स्थानकवासी '। ये लोग मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं।
जैनियों की अन्य शाखाओं में
'तेरहपंथी',
'बीसपंथी',
'तारणपंथी' और 'यापनीय' आदि
कुछ और भी उप-शाखाएँ हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है ! जैन धर्म में सांसारिक तृष्णा बंधन से मुक्ति को निर्वाण कहा गया है। निर्वाण प्राप्ति के लिए त्रिरत्न का पालन आवश्यक मन गया है।
जैन धर्म में त्रिरत्न है – सम्यक दर्शन
(सत्य में विश्वास), सम्यक ज्ञान (शंका रहित वास्तविक ज्ञान) तथा सम्यक आचरण (सुख-दुःख में समभाव)।
साथ में पांच महाव्रतों का पालन आवश्यक माना गया है।
ये पांच महाव्रत है –
1. सत्य,
2. अहिंसा,
3. अस्तेय,
4. अपरिग्रह,
5. ब्रह्मचर्य।
गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वालों के लिए भी इन्ही व्रतों की व्यवस्था की गयी है लेकिन उनके
लिए कठोरता में कमी करके उसे अणुव्रत नाम दिया गया है।
जैन धर्म में काया-क्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा शरीर के अंत ( संल्लेखन) का भी विधान है।

 मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने मैसूर के श्रवण बेलगोला में इसी प्रकार मृत्यु प्राप्त किया था। जैन धर्म कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांतों को मानता है परन्तु वेदों की प्रमाणिकता को नहीं माना तथा पशुबलि का विरोध किया है। सृष्टि की रचना के लिए परमात्मा को मानने की आवश्यकता नहीं है। जैन देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं परन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। कर्मों के अनुसार ऊँचे या नीचे कुल में जन्म होता है। युद्ध और कृषि कार्य वर्जित है क्योंकि इनसे जीव-हिंसा होती है इसीलिए जैनी व्यापर और वाणिज्य तक सिमित रहते हैं। हर धर्म कुछ कहता है, चाहे वह हिंदू धर्म हो या इस्लाम, जैन, बौद्ध, ईसाई, सिख... हर धर्म मानवता सिखाता है !

लेखिका- जयति जैन

2 comments:

  1. जैन धर्म का सही मर्म आपने समझाया । लेकिन वैसे कहा जाए तो जैन धर्म का वर्णन कोटि -कोटि शब्दो में भी नही किया जा सकता है।
    जैन धर्म प्रभावना का जो सुदंर कार्य आपने किया है उसके लिए धन्यवाद।
    ।।जय जिनेन्द्र।।

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  2. जैन धर्म का सही मर्म आपने समझाया । लेकिन वैसे कहा जाए तो जैन धर्म का वर्णन कोटि -कोटि शब्दो में भी नही किया जा सकता है।
    जैन धर्म प्रभावना का जो सुदंर कार्य आपने किया है उसके लिए धन्यवाद।
    ।।जय जिनेन्द्र।।

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