*"जानिए दिगंबर जैन धर्म में पर्युषण पर्व" (दशलक्षण पर्व)



       आज में आप सभी के सम्मुख बहुत ही रोचक जानकारी प्रस्तुत कर रही हूँ। विषय है *"दिगंबर जैन सम्प्रदाय में पर्युषण पर्व"*।

        भारत वसुंधरा धार्मिक विविधताओं का देश है। भिन्न भिन्न धर्मानुयायियों में धार्मिक सम-रसता भी है। सभी परस्पर अन्य धर्मों का आदर व् सम्मान करते हैं। और मूल में देखें तो भारत वर्ष सभी धर्म प्राणी मात्र के कल्याण की ही बात करते हैं। हम सभी को भी भिन्न भिन्न धर्मो के रूप में भारतीय संस्कृति के अलग-२ रंगों को अनुभव करना चाहिए।

     दिगंबर जैन सम्प्रदाय में १० दिनों तक चलने वाला यह पर्व अत्यन्त रोचक है निश्चित यह इसकी व्याख्या को जानकर आप सभी को आनंद की अनुभूति होगी।

      पर्युषण का प्रथम दिन भाद्रपद शुक्ल पंचमी से प्रारंभ होता है, इस प्रथम दिन को सभी जैन जन *"उत्तम क्षमा धर्म"* के रूप में मनाते हैं। यह उत्तम क्षमा है क्या *?* एक दिन यह भावना करने का प्रयोजन क्या है *?* आइये समझते हैं-

     इस दिन जैन जन *उत्तम क्षमा धर्म* की आराधना हेतु जो भावना करते हैं उसको किसी कवि ने कविता के रूप में इस तरह प्रस्तुत किया है-

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१. *पीडै दुष्ट अनेक,*
*बाँध मार बहुविधि करै।*
*धरिये छिमा विवेक,*
*कोप न कीजै पितमा।।*

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*अर्थात* -  कोई दुष्ट व्यक्ति आपको कई तरह से पीड़ा पहुँचा रहा है तो भी आप उसके प्रति क्षमा भाव धारण करें, उसके प्रति क्रोध भाव ना धरें।

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२. *उत्तम छिमा गहो रे भाई,*
    *इह-भव जस पर भव सुखदाई।*
    *गाली सुन मन खेद ना आनो,*
    *गुण को औगुन कहै आयनों।।*

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*अर्थात* - हे मनुष्य उत्तम क्षमा को धारण करो। यह क्षमा इस लोक और परलोक में सुख देने वाली है। यदि कोई गुणों को भी अवगुण कहता है या गाली भी देता है तो भी मन में खेद नहीं करना चाहिए।

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३. *कहि है आयनों वस्तु छीनै,*
    *बाँध मार बहु विधि करै।*
    *घर तै निकारै तन विरादै,*
    *वैर जो ना तहाँ धरै।।*

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*अर्थात* - कोई वस्तु छींनता है, अनेक तरह से प्रताढित करता है, घर से निकालने पर, शरीर को कष्ट देने पर भी क्षमाशील व्यक्ति कष्ट देने वाले के प्रति वैर भाव नहीं रखता।

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४. *तै करम पूरब किए खोते,*
    *सहै क्यों नहीं जीयरा।*
    *अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी,*
    *साम्य जल ले सीयरा।।*


कोई व्यक्ति इतनी क्षमा क्यों धारण करे इस बात को समझने के लिए उपरोक्त पंक्तियाँ महत्वपूर्ण हैं।

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*अर्थात* - वर्तमान में जो भी प्रतिकूलता मिलती है वह पूर्व समय में उपार्जित कर्मो का ही प्रतिफल होता है अतः हे प्राणी तू इसे शांत भाव से सहन क्यों नहीं करता है। अधिक क्रोध रूप अग्नि को शांत करने के समता रूपी जल का उपयोग करना चाहिए।

पूर्वोपार्जित कर्मो का ही प्रतिफल है वर्तमान की प्रतिकूलता। इस कथन को रामचरित मानस की इन पंक्तियों से भी समझा जा सकता है-

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*"करम प्रधान जगत करि रखा,*
 *जो जस करही सो तस फल चाखा।"*


         क्या पर्युषण पर्व, इस *"क्षमाभाव"* को सिर्फ एक दिन को धारण करने को कहता है? उत्तर है नहीं , एक दिन में आप अभ्यास कीजिए और संपूर्ण जीवन के लिए इस कल्याण करी बात को धारण कीजिए।


एक महत्वपूर्ण बात। आप सोचेंगे की ऊपर की व्याख्या से तो लगता है कि कोई किसी को कितना भी कष्ट दे तो उसे कुछ नहीं करना चाहिए। ऐंसा नहीं है, अपनी, अपने परिवार की, समाज की, राष्ट्र की, धर्म की रक्षा हेतु आपको प्रतिकार करना चाहिए व् इन सभी की रक्षा अवश्य करना चाहिए।


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